यह गलती नहीं होती अगर हम रिश्ता और प्रेम को जिस रूप से सोचते हैं जिस रूप को स्वीकारते हैं अगर उसी रूप को व्यवहार में लाते । लेकिन हम रिश्ता और प्रेम के परिभाषिक रूप को तो स्वीकारते हैं लेकिन व्यवहार में हम इसके अपभ्रंश रूप को लाते हैं । प्रेम का परिभाषिक रूप है प्रेम मेंअधिकार नहीं होता है। अगर प्रेम में अधिकार होता भी है तो प्रेम का अधिकार सिर्फ प्रेम होता है लेकिन आप प्रेम का अधिकार रिश्ता मानते हैं और आप यहीं पर गलती कर बैठते हैं ।। हम प्रेम में अधिकार को सम्मिलित नहीं कर सकते हैं लेकिन जब प्रेम में रिश्ता आता है तो रिश्ता खुद-ब-खुद अधिकार को लेकर आता है। और जब भी प्रेम में अधिकार आएगा तो फिर हम प्रेम को शुद्ध प्रेम नहीं रख सकते।।क्योंकि प्रेम में कर्तव्य का होना नितांत आवश्यक है जबकि अधिकार हमें कर्तव्य से च्युत करता है।। इसका मतलब ये बिल्कुल भी नही है कि अधिकार कर्तव्य को हमेशा ही कम करता है।लेकिन ये भी सही है कि अधिकार के आने से कर्तव्य पर नकारात्मक असर होता है।।और जब अधिकार रिश्ता के कारण आए फिर तो कुछ ज्यादा ही नकारात्मक असर होता है।।
अगर हम रिश्ते को मूल स्वरूप में स्वीकार करना चाहे फिर हमें रिश्ता में प्रेम के महत्व को जानना तो होगा और प्रेम को व्यवहार में भी लाना होगा। लेकिन हमें प्रेम से अधिकार को बाहर निकालना पड़ेगा ।। जब तक प्रेम और अधिकार एक साथ होंगे तो रिश्ता और प्रेम एक जैसा लगने के बाद भी विरोधी तत्व ही होंगे। प्रेम से अधिकार के खत्म हो जाने के बाद ही प्रेम और रिश्ता एक दूसरे के पोषक हो सकते हैं।।
सूरज कुमार
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